राजनैतिक दल करें तो सोशल इंजीनियरिंग, क्षत्रिय बोले तो सियासत!

-रीना एन. सिंह
आज का भारत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ यह सवाल अत्यंत प्रासंगिक हो गया है कि आखिर ऊंची जातियों का शोषण क्यों हो रहा है। वह समाज जिसने सदियों तक ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति, संस्कार, राष्ट्रनिर्माण और आत्मबल का ध्वज उठाया, आज खुद अपने अधिकारों और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। आरक्षण जो कभी वंचित वर्गों को मुख्यधारा से जोड़ने का माध्यम था, आज राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा स्थायी हथियार बन चुका है। यह व्यवस्था अब न न्याय का प्रतीक है और न अस्थायी समाधान, बल्कि यह योग्यता और परिश्रम की खुली हत्या बन चुकी है जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान सवर्णों या ऊँची जातियों को हो रहा है। शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश से लेकर सरकारी नौकरियों तक, योजनाओं से बहिष्कार से लेकर राजनीतिक और मीडिया मंचों पर उपेक्षा तक, हर जगह एक मौन भेदभाव झेलना पड़ रहा है।

संविधान जिसने समानता को मूल अधिकार बनाया, उसी के तहत जातिगत आरक्षण के ज़रिए असमानता को संवैधानिक रूप दे दिया गया है। यह विडंबना ही है कि आरक्षण की आड़ में केवल वोटबैंक की राजनीति हो रही है, योग्यता और ज़रूरत को अनदेखा कर दिया गया है। जब नेता कहते हैं, बटेंगे तो कटेंगे जबकि सत्य है की “बाँटेंगे नहीं तो कटेंगे कैसे,” तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जातियों को जानबूझकर बाँटा जा रहा है। आज एक ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य का गरीब छात्र इसलिए पीछे रह जाता है क्योंकि उसकी जाति आरक्षित श्रेणी में नहीं आती, भले ही उसकी आर्थिक स्थिति किसी भी दलित या पिछड़े से खराब हो। क्या गरीबी का कोई जाति होती है? आरक्षण के कारण हजारों-लाखों योग्य सवर्ण छात्र अपने ही देश में अवसर न पाकर विदेश पलायन को मजबूर हो रहे हैं।
आरक्षण अब सामाजिक सहायता नहीं, राजनीतिक व्यापार बन गया है, जहाँ नई जातियों को जोड़कर नया वोटबैंक तैयार किया जा रहा है, और नुकसान उस वर्ग को हो रहा है जो न आरक्षण का लाभ ले सकता है न राजनीतिक संरक्षण प्राप्त कर सकता है। अगर आरक्षण सच में सामाजिक पिछड़ेपन के लिए है तो फिर आर्थिक आधार को क्यों न जोड़ा जाए? क्या ऊंची जातियों में कोई गरीब नहीं? समाधान स्पष्ट है। भारत को अब एक नए सामाजिक समझौते की जरूरत है जहाँ जाति नहीं, योग्यता को प्राथमिकता मिले; वर्ग नहीं, मूल्य की गिनती हो; और परिवार नहीं, परिश्रम से पहचान बने। आरक्षण की अवधि तय हो, समीक्षा हो, और हर जरूरतमंद को समान अवसर मिले बिना जातिगत भेदभाव के। जब तक हम इस मौन शोषण को नहीं पहचानेंगे और इसका विरोध नहीं करेंगे, तब तक समानता केवल एक छलावा रहेगी। अब समय आ गया है कि हम मौन तोड़ें, जातियों को नहीं विचारों को बाँटें, समाज को नहीं अवसरों को साझा करें,तभी एक समरस, शक्तिशाली और न्यायपूर्ण भारत का निर्माण संभव होगा।
(रीना एन. सिंह सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं।)